Saturday, December 31, 2011

कल की सुबह..


सर्द सुबह,
नई सी लगी, 
मगर चेहरे पे नक़ाब, 
पुरानी सी लगी,
घनी कोहरे की चादर,
पहले से कुछ मैली सी लगी,
शायद वक्त के साथ,
घूमते घूमते,
घिस गई है,
जीवन की रस्सी,
कमजोर होकर,
कमजोर कड़ी की तरह, 
बस टूटने के कगार पर है,
कल की सुबह

Saturday, December 24, 2011

जिन्दगी ....


जब मैंने,
जिन्दगी को,
संघर्ष का दूसरा रूप,
मान लिया,
तब देखा कि,
हर मुश्किल,
आसान हो गई-

Wednesday, November 30, 2011

मेरा दोस्त...


वह मेरा दोस्त है,
वह बहुत बोलता है,
उग्र बातें करता है,
व्यवस्था के प्रति,
नाराजगी जाहिर करता है,
मैं उसे अक्सर बड़बोला कह देता हूं-
मुझे उससे डर नहीं लगता,
लेकिन जब वह,
शांत हो जाता है,
चुप्पी साध लेता है,
तब मुझे उससे,
डर लगने लगता है,
कि कहीं यह,
तूफान से पहले की शांति तो नहीं-

Saturday, November 26, 2011

अब मैं हूं समझौतावादी


कई बार खुद को,
खुद से ही डर लगने लगता है-
कहीं मैं,
किसी अपने पर गुस्सा होकर,
नाराज़ न हो जाऊं-




फिर अगर उसने मुझे मनाया नहीं तो,

नाराज़ होकर वह मेरा अपना,
मुझ से दूर ना चला जाए,

शायद उसका साथ हमेशा के लिए छूट जाए-
तब मुझे,
अपने उस गुस्से और नाराज़गी की कीमत,
किसी "अपनेपन" को खोकर चुकानी पड़े-


इस लिए अब मैं समझौता करता हूं,
गुस्सा नहीं ,
ताकि अपनेपन से रिश्ता कायम रहे-
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Sunday, October 23, 2011

थकावट खोना चाहता हूं


भटके पथ पर,
पसीने से लथपथ,
मैले कमीज़ पायजामें ने,
जब शाम हुई तो,
शराब के ठेके पर,
दिन भर की मेहनत को,
पव्वे में डाल कर गटक लिया,
और झूमने लगा-


पैरों की टूटी चप्पल ने,
उलाहना दिया,
तेरे साथ मैंने भी दिया, दिनभर खटा,
कभी मेरा भी तो ख़्याल कर,
मेरे तलवे घिस गए,
चमड़ी उधड़ गई,
कभी तो मलहम लगा, पैबन्द लगा-


इस पर हाथों की बिवईयां,
भी बोल उठी और
क्रांति का बिगुल फूंक डाला-


लेकिन तब तक सिर घूमने लगा, 
कमीज़-पायजामा झूमने लगा,
चप्पल और बिवईयों की 
क्रांति का बिगुल  सुनकर कहा,
बहुत थक गया हूं ,
थकावट खोना चाहता हूं ,
सारे जहां का ग़म भुला कर,
सोना चाहता हूं ,
और 
फिर कमीज पायजामा
धरती की गोद में सिर रखकर,
चैन की नींद सो गया-
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Sunday, September 25, 2011

नाराज़ बादल से मनुहार..


आ बरस ले, 
अपनी ख़्वाहिशें पूरी कए ले,
ऎ मेरे नाराज़ बादल-


तूं मेरा है और
ये टूटा मकां भी मेरा है,
मग़र,
टूटा नहीं है तुझ से 
मेरा नाता-


अपने,
टूटे आशियाने को तो,
फिर से सजा-संवार लूगां,
मग़र तुझ से टूटे नाते को,
फिर से जोड़ना मुश्किल होगा,
इसे तो,
कोई कारीगर भी
नहीं जोड़ सकता-


इस लिए तूं बरस,
अपनी ख़्वाहिशों को
ना तरस- 
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Saturday, September 3, 2011

मैं अपने घर में अब कैद नहीं


आज कल मै,
अपने घर पर ही रहता हूं
यह मत समझो कि मैं
घर में कैद हूं-

घर के बाहर अब और तब?
मुझे एहसास है,
सुबह की सैर,
सुबह पार्क में, 
सब के साथ मिल बैठ,
ठहाके लगा कर हंसना,
गप्पें लड़ाना और, 
एक दूसरे का दुख सुख बांटना,
दिन भर तरोताज़ा रहना-

लेकिन अब मैं, 
घर में ही रहता हूं
घर के बाहर अब,
मुझे डराते धमकाते हैं,..
भेदभाव के ज़हरीले सांप,
साम्प्रदायिक्ता का प्रदूषण,
और भ्रष्टाचार का भयानक जंगल-

अब मुझे लगने लगा है,
घर के बाहर की हवा से ,
घर के भीतर की हवा में,
सांस लेना ज्यादा मुनासिब है-

घर के भीतर, 
मिलता है मुझे,
भाई चारे का का खाना,
स्नेह की चाय, 
और अपनेपन का दूध,
सौहार्द की ठंडी हवा,
प्यार की मीठी चाश्नी,
और चान्दनी सी रिश्तों ठंडक,
इस लिए अब मैं अपने घर में,
कैद नहीं ,
आजाद हूं--

Tuesday, August 16, 2011

आना...आजादी का..


एक भूखी नंगी आंखों की जोड़ी
दीवार पर टंगी दिखाई देती है,
विद्रोह से कुंठित मस्तिष्क
चारपाई पर बैठा चिंतन कर रह है,
भिंची हुई मुट्ठियां बार बार 
तिपाई पर "खट खट" का स्वर करती हैं,
फिर सीने की धड़कन से आवाज़ निकली है
"आजादी.. आजादी..."


एक झोंपड़ी के भीतर 
चूल्हे पर चढी हांडी से
तरल आंसू उफ़न कर
चूल्हे की आग में..शूं..शूं की आवाज़ करते हैं,
पास में ही पिचका हुआ पेट
शूं..शूं का अर्थ समझने की कोशिश करता है,
उसे लगता है कहीं..आजादी...आजादी..


गले-सड़े हुए फल-सब्जियां, 
सड़क पर फैले हुए देख,
इर्द गिर्द मक्खियां भिनभिनाते
सूखे पपड़ाए होठों पर जीभ फिराते
अबोध सिर,
सड़ान्ध पर लपकते हुए भिड़ जाते हैं-


तेज गति से रेंगती हुई सिटी बस से
उतावलेपन में 
जोड़ी पांव लड़खड़ा कर गिर जाते हैं..
सड़क पर..
काली सूखी तारकोली सड़क पर
लहू फैल जाता है,
फिर आवाज़ आती है,
आजादी..आजादी....
और आजादी का ध्वज फहरने
वाले कदम
उस लहू को रौंद कर आगे निकल जाते हैं-
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Sunday, August 7, 2011

यूं बरस



यूं ही बरस, पर यूं ना बरस
बरसों से ना बरस, 
पल पल बरस
तन पर बरस, घर पर बरस
तपते सीने पर बरस, 
जलती आग पर बरस
प्यासे मन पर बरस 
घन घन, झन झन बरस
ना किसी को तरसा, ना खुद तरस
यूं बरस, यूं ना बरस
तपन से हुए बेहाल
अब कुछ तो खा तरस
धीर या तेज 
मगर बरस-

Saturday, August 6, 2011

जो पल तेरे साथ जीआ


जो पल तेरे साथ जीआ,
"वो" पल आज भी,
मेरे साथ जी रहा है-


तनहाई के अश्क पी रहा है,
मेरे दिल का समन्दर,
तेरे साथ जीए पलों की,
प्यास बुझाने की ख़ातिर-


क्योंकि मुझे,
तेरे साथ बिताए पलों की,
सभी मुरादें पूरी करनी हैं,
क्योंकि मुझे,
एहसास है कि,
जो पल तेरे साथ जीआ,
वो पल ही मेरी,
खूबसूरत जिन्दगी है-
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Tuesday, July 26, 2011

पहलू बदलती जिन्दगी


तेज रफ्तार और पहलू बदलती,
महंगी जिन्दगी में,
मेरी दादी और बूढ़ी हो गई है,
अब उसे ऊंचा भी सुनाई देने लगा है,
लेकिन अब वह पहले से अधिक, 
सवाल पूछने लगी है-


लेकिन मेरे परिवारजन,
उनके सवालों से खीजने लगे हैं,
परेशान होने लगे हैं,
क्योंकि 
कुछ सवाल ऎसे होते हैं ,
जिनका जवाब देने के लिए,
कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है-


मंहगी और तेज रफ्तार,
जिन्दगी को ढोते,
मेरे परिवारजनों में,
दादी मां के सवालों का,
जवाब देने लायक,
उर्जा बाकी नहीं रहती,

जिन्दगी से जूझते,
मेरे परिवारजन,
बूढ़ी दादी के सवालों का,
जवाब देने की उर्जा नहीं बचा पाते-


लेकिन मेरी दादी को,
बोलते रहने के लिए,
सवालों के जवाब चाहिए,
मैं जानता हूं,
वे जब सवाल नहीं करेंगी,
तो उनका बोलना,
हमेशा के लिए बन्द हो जाएगा-
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Thursday, June 30, 2011

उम्र की सड़क


पिता का साथ बचपन में ही छूटा,
तब मै अपने पैरों पर भी,
ठीक से खड़ा नहीं हो सका था-


लेकिन आज मेरा बेटा,
काफी बड़ा हो गया है,
उम्र में और ऊंचाई में,
और अपने पैरों पर भी खड़ा है,
लेकिन मुझे "अहसास" है,
कि वो मेरा बेटा है-


इस लिए आज भी मैं,
अपने बेटे की अंगुली थामे रहता हूं ,
जब वो सड़क पर चलता है,
सड़क को पार करता है.....
वो भले ही कितना भी,
बड़ा हो गया हो,
मेरे लिये तो बच्चा है, 
क्यों कि 
मैंने जो संघर्ष की ,
सड़क पर जिन हादसों को झेला,
मेरे अनुभव से मैं
अपने बेटे को,
सड़क हादसों से 
तो बचा कर रखूं-
( यह कविता मैंने फादर्स-डे पर वर्ष 2011 में लिखी)

Saturday, June 25, 2011

ख़ामोश-तनहाईयां



हर रोज़ की तरहा,
खामोश- तनहाईयों का जंगल, 
मेरे साथ, मेरे कमरे में आकर बैठ जाता है-
दिल की खिड़की से,
मिट्टी के टूटे घरोंदे सी, 
एक जोड़ी मासूम सी आंखें,
किसी की आहट को ढूंढने लगती हैं,


आंगन में यादों का बूढा पेड़ अब,
अपने आप को वट वृक्ष कहने लगा है,
आत्मीयता और अपनेपन के पौधे,
उदासी की चादर ओढे,
किसी गहन चिंता में डूबे हैं,
मानों किसी ने उनकी जड़ों में
जहर घोल दिया हो,
और बसन्त ने उनसे मुंह मोड़ लिया हो-


मासूमियत की चाय,
उबल-उबल कर ,
तुम्हारे बालों की तरहा स्याह हो चुकी है,

उसमें प्यार का दूध डाल कर,
रंग बदलने का प्रयास करता हूं ,
वफ़ा की छलनी में छान कर,
वादों की केतली में डाल कर,,,
उसे आत्मीयता के सूखे फूलों ,
के साथ सजा देता हूं,


आंखों की गहराई के प्याले में भर कर,
डाली से टूट कर निर्जीव हो चुके,
सूखे पत्तों के होठों पर लगा देता हूं,
यह सोच कर कि,
तुम्हारी याद और तुम्हारी कल्पना,  
के मिश्रण से बना अमृत,
शायद ख़ामोशियों के चेहरे को,
नया जीवन दे दे--
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Wednesday, May 11, 2011

दोहन की आग


कुदरत ने तो बनाया था,
मेरे लिए,
इक हसीन आशियाना,
मग़र स्वार्थ के दानव ने,
इसे दोहन की 
आग के हवाले कर दिया-


स्वार्थ के दिमाग़ से
निकले धुंए से,
आसमां बीमार हो गया,
धरती को रोग़ लग गया-


कुल्हाड़ी उस डाली पर चली,
जिस पर इन्सान बैठा था,
उसी घर को आग लगी,
जिसमें मानव रहता था-


बिना डाली के फूल,
खिलाने की कोशिश,
पतझड़ के बिना,
बहार लाने की तमन्ना,
और बिना पंख,
परिन्दे को 
उड़ाने के प्रयास ने
फुकुशिमा को पैदा किया-

स्वार्थ के खरपतवार को,
यदि नष्ट नहीं किया गया तो,
 पैदा होंगे अनगिनत फुकुशिमा-

Friday, May 6, 2011

मेरा सफ़र


माना जिन्दगी सफ़र है,
इस लिए चल रहा हूं,
मंजिल कहां है,
किस बाज़ार में मिलेगी
ये जनता नहीं मैं-


जनता हूं तो बस इतना,
मुझे चलना है
और चलता रहूंगा तो,
शायद मेरी ,
मंजिल भी मेरे साथ चलेगी,
मैं रुकुंगा तो वो भी थम जाएगी।
*******************************

Saturday, April 30, 2011

हम परिन्दे




हम तो परिन्दे है


इन्सां के मोहताज़ नहीं
खुद ही ढूंढ लेंगे
अपना दाना पानी
और आशियाना-
मोहताज़ तो इन्सां है
 दूसरे पर आश्रित रह कर
किसी दूसरे में
ढूंढता है
अपना दाना पानी।


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Thursday, April 14, 2011

गुल्लक


______________
 मेरे शहर के लोग
तरक्की का दावा कर रहे हैं,
आंकड़ों के मकड़ जाल में फंसा रहे हैं,
पहाड़े पढा रहे हैं,
और
कम्प्यूटर की आंख से 
देश की ईज्जत को,
ऊंचा उठा रहे हैं.
लेकिन मेरे घर के सामने ही,
सब्जी मंडी के बाहर,
अपने गले में झोले ‍थैले लटकाए,
अबोध बच्चे,
सब्जी का टोकरा ढोने वाले,
मज़दूरों के पीछे दोड़ते हैं,
टोकरे से गिरे,
सब्जी के टुकड़ों को,
अपने थैलों में सहेजते हैं.
होटल के पिछवाड़े
आठ बरस का रामू
जूठे बर्तन मांजता हुआ
अब भी ऊंघने लगता है
होटल का मलिक
अब भी उसे
डंडे की धमक से जगाता है.
शहर के बाहर
अब भी कचरे के ढेर में
अबोध सिर धंसे हुए हैं
कचरे मैं कुछ ढूंढ रहे हैं.
फिर भी 
तरक्की का दावा करते हैं तो
मान लेता हूं
लेकिन
सब्जी के टोकरे के पीछे
दौड़ने वाले बालक
होटल के पिछवाड़े 
बर्तन धोने वाला रामू
और
कचरे में धंसे अबोध सिर
पहले 
पेट भरने को मेहनत करते थे
अब वे भौतिकता की गुल्लक भरते हैं.
इस गुल्लक को 
भरने की खातिर
अब वे पहले से अधिक तेज
दौड़ते हैं.
*************************

Friday, April 1, 2011

दिल को पिंजरे में कैद ना करना



----------------------
तुम बन्द दरवाजे हो
तो अपनों के लिए
दिल के कपाट 
खोल कर रखना,
दिल को काबू में रखना 
मग़र इस परिन्दे को
पिंजरे में कैद ना करना-


अपनी आंखों में बसंत भर कर
प्यार के पौधे को
ममता के हाथों से सींचना
ताकि दोस्ती के नन्हें पत्तों पर 
कभी पतझड़ ना सके

शरद हो तो
अपनी गोद के लिहाफ़ से गरमा देना
बुरी हवाएं हमला करें तो
अपनी कोमल सांसों के फव्वारे छोड़ना
ताकि प्यार की कोंपलें
मुरझा ना जाए-


सांझ की लाली
होठों पर 
सुबहा-सुनहरी बिन्दिया 
माथे पर
अलसाई-अंगड़ाई को
धीमें से सहला भर देना
किसी तेज हवा के झोंके से
स्नेह का दीप
बुझ ना जाए

सपनों को हकीकत के
पंख लगाना
मन की हर क्यारी में
ममता के फूल खिलाना
और 
बादल बन 
नेह की बून्दे बरसाना
जब हो एकाकीपन,
उदासी के पल
तो इस बगिया में बैठ
बचपन की यादों में
खो जाना
खुद को कीचड़ में
कमल की तरहा उगाना


बन्द दरवाजे हो
तो अपनों के लिए
दिल के कपाट
खोल कर रखना
दिल को काबू में रखना
मग़र इस परिन्दे को
पिंजरे में कैद ना करना-
********************************

Friday, March 4, 2011

सुख़-दुख़ का सफ़र


सुख-दुख का सफ़र
----------------------
मैं आज भी
जीवन के सफ़ेद पन्नों पर
लिखी गई उस शोध को
पढ कर
यह समझ नहीं पाया हूं
कि चाहत के अंकुर से
उभरने वाले पौधे पर
कान्टे क्यों उग आते हैं
परिणति को बिन जाने
आसक्त पांव
बरबस ही बेखौफ
कान्टों की उस पगडंडी पर
 क्यों चलने लगते हैं

इतिहास के कई
ज़ाल बुनकर भी
इस शोधनुमा मछली को
आजतक बांध न पाया
समझ न पाया

शोध के अंतिम छोर तक
एक ही इबारत लिखी हुई थी
जहां फूल है
वहां कांटे भी है,

जहां सुख है 
वहां दर्द है, दुख है, वेदना है
जिन्दगी का ये सफ़र 
एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है
इस लिए कि
एक के बिना 
दूसरे का अस्तित्व गौण 
हो जाता है।
॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑

तुम मेरे अपने हो..


तुम हो 
तुम्हारा मन है
तुम अपने मन को
अपनी सुविधा के मुताबिक
पतंग की तरह
जिधर चाहे मोड़ लेते हो-

लेकिन मैंने तो
अपने आसमान को
तुम्हारी पतंग के लिए
खाली छोड़ दिया है
तुम जब जी चाहे
इसमें अपनी पतंग को
उड़ाओ या समेट लो-

क्यों की मैं तो 
खुला आसमान हूं
और तुम हवा के साथ 
उड़ने वाला बादल
जो मेरी गोद में रह कर
धरती को देता है 
जीवन की धारा-

अतीत की कड़वी यादें
मुझे सूली की सज़ा देती हैं
लेकिन फिर भी
तुम मेरे अपने हो
अपनेपन के अहसास से ही
मैं जिन्दा हूं-

करवट बदलता हूं
इस कदर सम्भल कर कि
तुम्हारे कोमल पन्खों को
खरोंच ना पहुंचे 
भले ही तुम
मेरे आशि्याने को
अपने पैने पंजो से 
ज़ख्मी कर डालो
क्यों कि तुम
मेरे अपने हो। 
॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑

Wednesday, March 2, 2011

तीन क्षणिकाएं


वर्तमान राजनीति
--------------
एक नग्न मूर्ती
मंच पर चिल्ला रही है
पांडाल में बैठी 
जनता से
फ़रमा रही है
अश्लीलता , नग्नता
के खिलाफ 
पाठ पढा रही है।
॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑
समाजवाद
----------
टूटी टांग का कुत्ता
एवरेस्ट की ओर
झांक रहा है-

 भंडार भरे हैं
 फिर भी
आम आदमी
धूल फांक रहा है।

॑॑॑॑॑॑
सरकारी बजट
----------
एक ऎसा मीठा फल
जिसे जनता के हित के लिए
पकाया गया
और उसे
सरकारी कर्मचरी
अधिकारी और
जनप्रतिनिधि
नोच नोच कर
खाते हैं।
##########

Saturday, January 15, 2011

॑॑॑मेरी पहचान एक नम्बर ॑॑

----------------------------------
मेरा शहर बहुत खूबसूरत था,
इस शहर में हर शख्स की
एक पहचान थी,
हर शख्श
एक दूसरे को
जानता पहचानता था,
सब एक दूसरे के
मान सम्मान
का अर्थ भी जानते थे-


लेकिन अब मेरा ये शहर
मशीनों के हवाले
कर दिया गया है-
अब मेरी और मेरे शहर के
लोगों की पहचान
नम्बरों के चक्रव्यूह में
खो गई है-


मैं और मेरा ये शहर
नम्बरों से पहचाना जाता है,
मेरे शहर को ढूंढने के लिए
एक पिन नम्बर है
तो मुझे पहचानने के लिए
पैन नम्बर,
मुझे ढूंढने के लिए
मकान नम्बर
मेरे मोहल्ले को
ढूंढने के लिए
वार्ड नम्बर,
सैक्टर नम्बर
तय कर दिये हैं-


अब बैंक में जाता हूं ,
तो बैंक का कम्प्यूटर भी
मुझे मेरे खाता नम्बर से ही जानता है,
पहचान वाले
बैंक कर्मचारी भी
मेरी पहचान का मिलान
कम्प्यूटर में दर्ज
नम्बर से ही करते हैं,
पहचान होगी तो भुगतान होगा-


गाड़ी में सीट नम्बर,
टिकट नम्बर,
अस्पताल में,
बैड नम्बर,
यहां तक कि
मेरी पहचान
मेरे फोन नम्बर से होने लगी है-


बदनसीबी का आलम देखिए
अब मुझे,
बहुउद्देशीय नम्बर
दिया जाएगा,
हर जगह
वही नम्बर मेरी पहचान होगा,
चाहे मैं जिन्दा रहूं
या मर जाऊं।
॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑