पिता का साथ बचपन में ही छूटा,
तब मै अपने पैरों पर भी,
ठीक से खड़ा नहीं हो सका था-
लेकिन आज मेरा बेटा,
काफी बड़ा हो गया है,
उम्र में और ऊंचाई में,
और अपने पैरों पर भी खड़ा है,
लेकिन मुझे "अहसास" है,
कि वो मेरा बेटा है-
इस लिए आज भी मैं,
अपने बेटे की अंगुली थामे रहता हूं ,
जब वो सड़क पर चलता है,
सड़क को पार करता है.....
वो भले ही कितना भी,
बड़ा हो गया हो,
मेरे लिये तो बच्चा है,
क्यों कि
मैंने जो संघर्ष की ,
सड़क पर जिन हादसों को झेला,
मेरे अनुभव से मैं
अपने बेटे को,
सड़क हादसों से
तो बचा कर रखूं-
( यह कविता मैंने फादर्स-डे पर वर्ष 2011 में लिखी)
हर रोज़ की तरहा,
खामोश- तनहाईयों का जंगल,
मेरे साथ, मेरे कमरे में आकर बैठ जाता है-
दिल की खिड़की से,
मिट्टी के टूटे घरोंदे सी,
एक जोड़ी मासूम सी आंखें,
किसी की आहट को ढूंढने लगती हैं,
आंगन में यादों का बूढा पेड़ अब,
अपने आप को वट वृक्ष कहने लगा है,
आत्मीयता और अपनेपन के पौधे,
उदासी की चादर ओढे,
किसी गहन चिंता में डूबे हैं,
मानों किसी ने उनकी जड़ों में
जहर घोल दिया हो,
और बसन्त ने उनसे मुंह मोड़ लिया हो-
मासूमियत की चाय,
उबल-उबल कर ,
तुम्हारे बालों की तरहा स्याह हो चुकी है,
उसमें प्यार का दूध डाल कर,
रंग बदलने का प्रयास करता हूं ,
वफ़ा की छलनी में छान कर,
वादों की केतली में डाल कर,,,
उसे आत्मीयता के सूखे फूलों ,
के साथ सजा देता हूं,
आंखों की गहराई के प्याले में भर कर,
डाली से टूट कर निर्जीव हो चुके,
सूखे पत्तों के होठों पर लगा देता हूं,
यह सोच कर कि,
तुम्हारी याद और तुम्हारी कल्पना,
के मिश्रण से बना अमृत,
शायद ख़ामोशियों के चेहरे को,
नया जीवन दे दे--
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