Saturday, April 30, 2011

हम परिन्दे




हम तो परिन्दे है


इन्सां के मोहताज़ नहीं
खुद ही ढूंढ लेंगे
अपना दाना पानी
और आशियाना-
मोहताज़ तो इन्सां है
 दूसरे पर आश्रित रह कर
किसी दूसरे में
ढूंढता है
अपना दाना पानी।


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Thursday, April 14, 2011

गुल्लक


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 मेरे शहर के लोग
तरक्की का दावा कर रहे हैं,
आंकड़ों के मकड़ जाल में फंसा रहे हैं,
पहाड़े पढा रहे हैं,
और
कम्प्यूटर की आंख से 
देश की ईज्जत को,
ऊंचा उठा रहे हैं.
लेकिन मेरे घर के सामने ही,
सब्जी मंडी के बाहर,
अपने गले में झोले ‍थैले लटकाए,
अबोध बच्चे,
सब्जी का टोकरा ढोने वाले,
मज़दूरों के पीछे दोड़ते हैं,
टोकरे से गिरे,
सब्जी के टुकड़ों को,
अपने थैलों में सहेजते हैं.
होटल के पिछवाड़े
आठ बरस का रामू
जूठे बर्तन मांजता हुआ
अब भी ऊंघने लगता है
होटल का मलिक
अब भी उसे
डंडे की धमक से जगाता है.
शहर के बाहर
अब भी कचरे के ढेर में
अबोध सिर धंसे हुए हैं
कचरे मैं कुछ ढूंढ रहे हैं.
फिर भी 
तरक्की का दावा करते हैं तो
मान लेता हूं
लेकिन
सब्जी के टोकरे के पीछे
दौड़ने वाले बालक
होटल के पिछवाड़े 
बर्तन धोने वाला रामू
और
कचरे में धंसे अबोध सिर
पहले 
पेट भरने को मेहनत करते थे
अब वे भौतिकता की गुल्लक भरते हैं.
इस गुल्लक को 
भरने की खातिर
अब वे पहले से अधिक तेज
दौड़ते हैं.
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Friday, April 1, 2011

दिल को पिंजरे में कैद ना करना



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तुम बन्द दरवाजे हो
तो अपनों के लिए
दिल के कपाट 
खोल कर रखना,
दिल को काबू में रखना 
मग़र इस परिन्दे को
पिंजरे में कैद ना करना-


अपनी आंखों में बसंत भर कर
प्यार के पौधे को
ममता के हाथों से सींचना
ताकि दोस्ती के नन्हें पत्तों पर 
कभी पतझड़ ना सके

शरद हो तो
अपनी गोद के लिहाफ़ से गरमा देना
बुरी हवाएं हमला करें तो
अपनी कोमल सांसों के फव्वारे छोड़ना
ताकि प्यार की कोंपलें
मुरझा ना जाए-


सांझ की लाली
होठों पर 
सुबहा-सुनहरी बिन्दिया 
माथे पर
अलसाई-अंगड़ाई को
धीमें से सहला भर देना
किसी तेज हवा के झोंके से
स्नेह का दीप
बुझ ना जाए

सपनों को हकीकत के
पंख लगाना
मन की हर क्यारी में
ममता के फूल खिलाना
और 
बादल बन 
नेह की बून्दे बरसाना
जब हो एकाकीपन,
उदासी के पल
तो इस बगिया में बैठ
बचपन की यादों में
खो जाना
खुद को कीचड़ में
कमल की तरहा उगाना


बन्द दरवाजे हो
तो अपनों के लिए
दिल के कपाट
खोल कर रखना
दिल को काबू में रखना
मग़र इस परिन्दे को
पिंजरे में कैद ना करना-
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