Saturday, December 4, 2010

एक सवाल

सुकरातो की जुबानबन्दी के लिए,
ताकत वाले,
अपना स्वार्थ सिद्ध करने हेतु,

 क्या सदा              
 जहर के प्याले देते रहेंगे?
 क्या गांधियों की नेकी,
 का बदला,
 गोडसे नाथू राम  
 पैदा कर,
 मानवता के दिल को,
 गोलियों से,
 छलनी करते रहेंगे?


 बहरुपिये,
 क्या अपने स्वार्थ की खातिर,
 सदा ही,
 शतरंज बिछा कर,
 कौरव बन कर
 द्रोपदी का चीरहरण कर,
 उसे भरी सभा में,
 नग्न नचाते रहेंगे?


 ये सभी सवाल,
 आंखों की बैसाखियों पर,
  पंगु मानवता का,
  जिस्म लाद कर,
  धरती पर
  कई लक्ष्मण रेखाएं,
  खींच रहे हैं-


  लेकिन धरती पर 
  खींची रेखाएं
  कमजोर हैं,
  इनमें,
  कोई ताकत नज़र नहीं आती
  कोई चमत्कार नहीं दिखता,
  हर रोज़,
  लक्ष्मण रेखाओं को,
  लांघ कर,
  बनते है,
  नए चक्रव्यूह
  और 
  सुकरातो, गांधी,अभिमन्यु
  होते हैं शहीद-


Thursday, December 2, 2010

1985 में लिखी मेरी दो कविताएं

        
 वहम का जाल(१)
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आज सारे शहर को 
नंगा देख कर
मुझे अपने तन के कपड़े
उड़ते नज़र आते हैं-


फिर फ़फ़ोले उभर आते हैं
किसी रुढिवादी
कुष्ठ रोग की देह पर
और कल्पनाओं 
की फुलवाड़ी में
पतझड़ का
तांडव होने लगता है-


नेह का निमंत्रण देने वाले
हाथों में
भीख कमंडल उठाए
अलख़ करते
नज़र आते हैं-


लौट आया है कोई
मज़ार पर
हाथों में
नई खुशबू का 
फूल लिए-


तब एक आवाज़ आई
क्या कोई आया है
अपने साथ लेकर
कोई औज़ार
जो काट सके
वहम की
रुढिवादी परम्पराओं को-


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सजना देहरी पर आए  ()
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तिनकों को सजा
इक नीड़ बना
सजना देहरी पर आए हैं-


सांझ ढली
उठ दीप जला
फूलों के गजरे
देव लोक का चंदन
मन मंदिर में सजा
सजना देहरी पर आए हैं-


भौर नई है
ठौर नई
आंगन में फूल लगा 
रंगोली सजा
सजना देहरी पर आए हैं-


बरस कितने
बीते पल पल
अब तप की घड़ियां बीतीं
सफल हुई 
आराधना
उठ गोद में रख
वीणा के तार बजा 
सजना देहरी पर आए हैं।
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