Thursday, December 2, 2010
1985 में लिखी मेरी दो कविताएं
वहम का जाल(१)
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आज सारे शहर को
नंगा देख कर
मुझे अपने तन के कपड़े
उड़ते नज़र आते हैं-
फिर फ़फ़ोले उभर आते हैं
किसी रुढिवादी
कुष्ठ रोग की देह पर
और कल्पनाओं
की फुलवाड़ी में
पतझड़ का
तांडव होने लगता है-
नेह का निमंत्रण देने वाले
हाथों में
भीख कमंडल उठाए
अलख़ करते
नज़र आते हैं-
लौट आया है कोई
मज़ार पर
हाथों में
नई खुशबू का
फूल लिए-
तब एक आवाज़ आई
क्या कोई आया है
अपने साथ लेकर
कोई औज़ार
जो काट सके
वहम की
रुढिवादी परम्पराओं को-
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सजना देहरी पर आए (२)
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तिनकों को सजा
इक नीड़ बना
सजना देहरी पर आए हैं-
सांझ ढली
उठ दीप जला
फूलों के गजरे
देव लोक का चंदन
मन मंदिर में सजा
सजना देहरी पर आए हैं-
भौर नई है
ठौर नई
आंगन में फूल लगा
रंगोली सजा
सजना देहरी पर आए हैं-
बरस कितने
बीते पल पल
अब तप की घड़ियां बीतीं
सफल हुई
आराधना
उठ गोद में रख
वीणा के तार बजा
सजना देहरी पर आए हैं।
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मेरी कविता
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