एक भूखी नंगी आंखों की जोड़ी
दीवार पर टंगी दिखाई देती है,
विद्रोह से कुंठित मस्तिष्क
चारपाई पर बैठा चिंतन कर रह है,
भिंची हुई मुट्ठियां बार बार
तिपाई पर "खट खट" का स्वर करती हैं,
फिर सीने की धड़कन से आवाज़ निकली है
"आजादी.. आजादी..."
एक झोंपड़ी के भीतर
चूल्हे पर चढी हांडी से
तरल आंसू उफ़न कर
चूल्हे की आग में..शूं..शूं की आवाज़ करते हैं,
पास में ही पिचका हुआ पेट
शूं..शूं का अर्थ समझने की कोशिश करता है,
उसे लगता है कहीं..आजादी...आजादी..
गले-सड़े हुए फल-सब्जियां,
सड़क पर फैले हुए देख,
इर्द गिर्द मक्खियां भिनभिनाते
सूखे पपड़ाए होठों पर जीभ फिराते
अबोध सिर,
सड़ान्ध पर लपकते हुए भिड़ जाते हैं-
तेज गति से रेंगती हुई सिटी बस से
उतावलेपन में
जोड़ी पांव लड़खड़ा कर गिर जाते हैं..
सड़क पर..
काली सूखी तारकोली सड़क पर
लहू फैल जाता है,
फिर आवाज़ आती है,
आजादी..आजादी....
और आजादी का ध्वज फहरने
वाले कदम
उस लहू को रौंद कर आगे निकल जाते हैं-
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