कई बार खुद को,
खुद से ही डर लगने लगता है-
कहीं मैं,
किसी अपने पर गुस्सा होकर,
नाराज़ न हो जाऊं-
फिर अगर उसने मुझे मनाया नहीं तो,
नाराज़ होकर वह मेरा अपना,
मुझ से दूर ना चला जाए,
शायद उसका साथ हमेशा के लिए छूट जाए-
तब मुझे,
अपने उस गुस्से और नाराज़गी की कीमत,
किसी "अपनेपन" को खोकर चुकानी पड़े-
इस लिए अब मैं समझौता करता हूं,
गुस्सा नहीं ,
ताकि अपनेपन से रिश्ता कायम रहे-
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ReplyDelete♥
आदरणीय नरेश विद्यार्थी जी
सादर नमस्कार !
घणी खम्मा !!
बहुत सुंदर कविता -
अब मैं समझौता करता हूं…
गुस्सा नहीं ,
ताकि अपनेपन से रिश्ता कायम रहे…
भाव पक्ष के चरम को छूती इस रचना के लिए
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार