Wednesday, November 24, 2010

मैं और मेरा मसीहा

किसी जंगल मैं,
किसी सुनसान 
हवेली या इमारत मैं,
मैं तुम्हारे ,
शारीरिक पारस की
तलाश करता हूं-


तुम्हारे पहले स्पर्श की,
उस घटना को,
अपने मस्तिष्क की
तंद्राओं पर घिस कर,
रोमांचित हो उठता हूं-
महसूस करता हूं,
मानों सूरज की किरणों से,
नीला आकाश,
स्वर्णिम हो गया है-


परम्पराओं की विवशताओं का
मासूम चेहरा भी दिखाई दे कल
तेरा ख़त आया था-
किसी फूल की पंखुड़ी से,
एक जौड़ी आंखों की झांक रही थी-
उन आंखों में
समाज के बंधनों और
रहा था-

वह चेहरा
मेरे ताबूत पर 
एक कील और ठोंक देता है-


यादों की सलीब पर,
टंगा हुआ मैं
और मेरा मसीहा
तुम्हारी बेवफाई पर भी,
तुम्हें माफ कर देता है-


और मैं
आपने भाग्य के समक्ष
नन्हे खरगोश की तरह,
दुबक कर एक कोने में
बैठ जाता हूं।

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