Wednesday, November 30, 2011

मेरा दोस्त...


वह मेरा दोस्त है,
वह बहुत बोलता है,
उग्र बातें करता है,
व्यवस्था के प्रति,
नाराजगी जाहिर करता है,
मैं उसे अक्सर बड़बोला कह देता हूं-
मुझे उससे डर नहीं लगता,
लेकिन जब वह,
शांत हो जाता है,
चुप्पी साध लेता है,
तब मुझे उससे,
डर लगने लगता है,
कि कहीं यह,
तूफान से पहले की शांति तो नहीं-

Saturday, November 26, 2011

अब मैं हूं समझौतावादी


कई बार खुद को,
खुद से ही डर लगने लगता है-
कहीं मैं,
किसी अपने पर गुस्सा होकर,
नाराज़ न हो जाऊं-




फिर अगर उसने मुझे मनाया नहीं तो,

नाराज़ होकर वह मेरा अपना,
मुझ से दूर ना चला जाए,

शायद उसका साथ हमेशा के लिए छूट जाए-
तब मुझे,
अपने उस गुस्से और नाराज़गी की कीमत,
किसी "अपनेपन" को खोकर चुकानी पड़े-


इस लिए अब मैं समझौता करता हूं,
गुस्सा नहीं ,
ताकि अपनेपन से रिश्ता कायम रहे-
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Sunday, October 23, 2011

थकावट खोना चाहता हूं


भटके पथ पर,
पसीने से लथपथ,
मैले कमीज़ पायजामें ने,
जब शाम हुई तो,
शराब के ठेके पर,
दिन भर की मेहनत को,
पव्वे में डाल कर गटक लिया,
और झूमने लगा-


पैरों की टूटी चप्पल ने,
उलाहना दिया,
तेरे साथ मैंने भी दिया, दिनभर खटा,
कभी मेरा भी तो ख़्याल कर,
मेरे तलवे घिस गए,
चमड़ी उधड़ गई,
कभी तो मलहम लगा, पैबन्द लगा-


इस पर हाथों की बिवईयां,
भी बोल उठी और
क्रांति का बिगुल फूंक डाला-


लेकिन तब तक सिर घूमने लगा, 
कमीज़-पायजामा झूमने लगा,
चप्पल और बिवईयों की 
क्रांति का बिगुल  सुनकर कहा,
बहुत थक गया हूं ,
थकावट खोना चाहता हूं ,
सारे जहां का ग़म भुला कर,
सोना चाहता हूं ,
और 
फिर कमीज पायजामा
धरती की गोद में सिर रखकर,
चैन की नींद सो गया-
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Sunday, September 25, 2011

नाराज़ बादल से मनुहार..


आ बरस ले, 
अपनी ख़्वाहिशें पूरी कए ले,
ऎ मेरे नाराज़ बादल-


तूं मेरा है और
ये टूटा मकां भी मेरा है,
मग़र,
टूटा नहीं है तुझ से 
मेरा नाता-


अपने,
टूटे आशियाने को तो,
फिर से सजा-संवार लूगां,
मग़र तुझ से टूटे नाते को,
फिर से जोड़ना मुश्किल होगा,
इसे तो,
कोई कारीगर भी
नहीं जोड़ सकता-


इस लिए तूं बरस,
अपनी ख़्वाहिशों को
ना तरस- 
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Saturday, September 3, 2011

मैं अपने घर में अब कैद नहीं


आज कल मै,
अपने घर पर ही रहता हूं
यह मत समझो कि मैं
घर में कैद हूं-

घर के बाहर अब और तब?
मुझे एहसास है,
सुबह की सैर,
सुबह पार्क में, 
सब के साथ मिल बैठ,
ठहाके लगा कर हंसना,
गप्पें लड़ाना और, 
एक दूसरे का दुख सुख बांटना,
दिन भर तरोताज़ा रहना-

लेकिन अब मैं, 
घर में ही रहता हूं
घर के बाहर अब,
मुझे डराते धमकाते हैं,..
भेदभाव के ज़हरीले सांप,
साम्प्रदायिक्ता का प्रदूषण,
और भ्रष्टाचार का भयानक जंगल-

अब मुझे लगने लगा है,
घर के बाहर की हवा से ,
घर के भीतर की हवा में,
सांस लेना ज्यादा मुनासिब है-

घर के भीतर, 
मिलता है मुझे,
भाई चारे का का खाना,
स्नेह की चाय, 
और अपनेपन का दूध,
सौहार्द की ठंडी हवा,
प्यार की मीठी चाश्नी,
और चान्दनी सी रिश्तों ठंडक,
इस लिए अब मैं अपने घर में,
कैद नहीं ,
आजाद हूं--

Tuesday, August 16, 2011

आना...आजादी का..


एक भूखी नंगी आंखों की जोड़ी
दीवार पर टंगी दिखाई देती है,
विद्रोह से कुंठित मस्तिष्क
चारपाई पर बैठा चिंतन कर रह है,
भिंची हुई मुट्ठियां बार बार 
तिपाई पर "खट खट" का स्वर करती हैं,
फिर सीने की धड़कन से आवाज़ निकली है
"आजादी.. आजादी..."


एक झोंपड़ी के भीतर 
चूल्हे पर चढी हांडी से
तरल आंसू उफ़न कर
चूल्हे की आग में..शूं..शूं की आवाज़ करते हैं,
पास में ही पिचका हुआ पेट
शूं..शूं का अर्थ समझने की कोशिश करता है,
उसे लगता है कहीं..आजादी...आजादी..


गले-सड़े हुए फल-सब्जियां, 
सड़क पर फैले हुए देख,
इर्द गिर्द मक्खियां भिनभिनाते
सूखे पपड़ाए होठों पर जीभ फिराते
अबोध सिर,
सड़ान्ध पर लपकते हुए भिड़ जाते हैं-


तेज गति से रेंगती हुई सिटी बस से
उतावलेपन में 
जोड़ी पांव लड़खड़ा कर गिर जाते हैं..
सड़क पर..
काली सूखी तारकोली सड़क पर
लहू फैल जाता है,
फिर आवाज़ आती है,
आजादी..आजादी....
और आजादी का ध्वज फहरने
वाले कदम
उस लहू को रौंद कर आगे निकल जाते हैं-
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Sunday, August 7, 2011

यूं बरस



यूं ही बरस, पर यूं ना बरस
बरसों से ना बरस, 
पल पल बरस
तन पर बरस, घर पर बरस
तपते सीने पर बरस, 
जलती आग पर बरस
प्यासे मन पर बरस 
घन घन, झन झन बरस
ना किसी को तरसा, ना खुद तरस
यूं बरस, यूं ना बरस
तपन से हुए बेहाल
अब कुछ तो खा तरस
धीर या तेज 
मगर बरस-