Tuesday, November 23, 2010

ज्वार-भाटा

ये कैसा वक्त है,
ईमान कमजोर और
भ्रष्टाचार सख्त है-


खून की लकीरें,
आशाओं की डोर,
टूटने की
दुख भरी गाथा सुनाती है-


भ्रामक, भ्रांतियों के पुतले,
डगर-डगर जाकर,
लोगों का जी बहलाते हैं
या उन्हें मूर्ख बनाते है
अनेक मरे हुए सांप है,
जो गला काट रहे हैं,
मजबूरी का,
ज़रुरतमंद का,
हकदार का-


अभाव के कबीले में
घास भी कीमती हो गई है
और
आदमियत इन्सानियत सस्ती-


हम जोंक की तरह
नमकीन मांस के साथ
 ही चिपक जाते हैं,
और
इन्सानियत का दामन 
छोड़ देते हैं-


शहरों के माथे पर,
कोलाहल का पसीना,
ज्वार बन कर
महानगर की
झोंपड़पट्टियों की तरह,
फैलता जाता है 
और 
इन्सान का अस्तित्व,
सिमटता जाता है-


ज्वार- भाटे के इस
चक्रव्यूह को 
तोड़ने की ताकत
जुटा पाना 
आज के अर्जुन के वश में नहीं है
इसके लिए तो
की जरुरत है,
एक नए महाभारत की,
तकि फिर से गीता का संदेश
आज के अर्जुन तक पहुंचे।
॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑॑





No comments:

Post a Comment