Saturday, November 13, 2010

नारों का अंधा जंगल


आज हमारी मानसिकता की चादर
इतनी सिकुङ गई है,
बर्फ की तरह जम गई है,
कि हमारे पांव ,
उस चादर से ढके नहीं जा सकते.,
कि हम कोरे स्वाभिमान के
फावङे गैंती हाथों में लेकर
काट रहे हैं,
शहर को , शांति को ,
 रिश्तों को ,प्यार ..मोहब्बत को-

किसी उङती हुई तितली को,
अपनी मुट्ठी मैं कैद कर,
हम
अपने रंग में रंगने का प्रयास करते हैं-

निट्ठल्ले बैठ कर 
खुद को 
गरीब की संज्ञा देते हैं-

लेकिन,
किसी परिश्रमीं की कनपटी
पर रिवाल्वर रख कर,
धमकाते हैं,
फिर भीङ में घुस कर
समाजवाद का नारा लगातें हैं-

कुएं के मेंढक की तरह,
हम अपने सामर्थ्य को ही 
सबसे बड़ा समुन्दर मानने लगते हैं-

दारु पी कर,
होशो हवास खो कर,
जिम्मेदारियों का जुआ उतार कर,
अपनी अक्ल को गिरवी रख कर,
उग्रवाद की लाठी पैरों में बांध कर,
शहीदों की फेहरिश्त में अपना नाम 
दर्ज करवाने की गरज़ से,
पराए लोगों का झंडा उठा कर,
नारों की गर्त में डूब जाते है-


वहां अपना वज़ूद खत्म कर
भीड़ के 
नारों के 
अंधें जंगल में खो
जाते हैं-

No comments:

Post a Comment