काश मै सांझा चूल्हा होता
एक ही तवे पे बनती रोटी
सांझी थाली में
दिल सांझा
मन सांझा
सारा जग सांझा होता
हर दिन नया नवेला होता
आंगन में गूंजे किलकारी
संवादों का रेला होता
हर घर में मेला होता
इस मेले में
न कई गुम होता
न कोप भवन में सोता
न संवादहीनता-अनबोला होता
और न किसी बूढे-बुढिया का दिल रोता
काश मै सांझा चूल्हा होता..
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खनकती आवाज उसकी,
मेरे कानों ने जब सुनी,
यूं लगा जैसे
आसमां ने झुक कर,
धरती को चुम्बन किया,
यूं लगा जैसे,
समन्दर किनारे,
हजारों सीपियां ने,
कोई रिश्ता बुन लिया,
यूं लगा जैसे,
आंखों की मीनारों ने,
दिल की इमारत को चुन लिया,
यूं लगा जैसे,
आंखों की बरसात ने,
जिन्दगी के सूखे दरख़्तों की,
पुकार को सुन लिया-
और जब पर्दे हटा के देखा,
तो नई सुबह का नया सूरज,
निकल आया,
नए जन्म की तरह-
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