Thursday, November 18, 2010

नई सुबह का इंतजार

मैंने कई बार,
पत्थरों को तराशा,
और,
तुम्हारे कई बुत बनाए-


सपनों की मुहब्बत ,
तलाशने को,
चारों दिशाओं में,
वफ़ा के कबूतर भी उड़ाए-


लेकिन,
 वे हर बार,
निराशाओं का पैगाम लेकर,
वापस लौट आए-


तब मैं,
अपनी तलाश के
सूखे होठों पर,
अतीत के गीले, तरल
फाहे रख कर
उन्हें सुकून देने का
प्रयास करता हूं-


अपनी आंखें ,
बंद कर लेता हूं-
कल्पनाओं की ओंस से,
ख़ुरदरी तनहाई को,
ढांप कर
आशाओं का सेतु,
लांघने के गुर सिखाता हूं,
एक बार फिर उड़ाता हूं,
कबूतर,
आशाओं के चमन मैं,
वफ़ा का संदेश,
पैरों में बांध कर-


आसमान की सलवटें,
फांद कर,
सात समंदर लांघ कर ,
जब खाली रहा,
आशियाना,
तो मैने ठाना,
 हाथ से,
निराशाओं की लक़ीरों,
को ख़रोंच कर,
आशाओं के ,
कैनवस पर,
इन्द्रधनुषी रंगों से,
नई लकीरें खींचता हूं,
नई इबारत लिख कर
आशियाने पर ,
 अपनेपन का, 
चराग़ जला कर
इन्तज़ार करने लगता हूं-


नई सबह का,
नई रोशनी का-


मुझे लगता है,
कि इस नई सुबह में
आगाज़ होगा
नए गहरे रिश्तों का
नए रंगों का,
जो कभी बेवफाई के,
दंश से भी
कमजोर नहीं पड़ेगा-

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