Saturday, November 20, 2010

झूठ का महल

मासूम कल्पना से 
चोरी किए शब्दों को,
बलात घसीट  कर
चापलूसी के 
पन्नों पर उतार कर,
शास्त्रों का महल बना कर
क्या होगा-

चोरी की हवा से
सीना फुला कर
तनिक अपनी गर्दन को
थोड़ा ऊंचा कर लोगे
बस इतना ही-

लेकिन तुम जानते हो,
इस महल की नींव 
जमीन पर नहीं है,
इसका सारा बोझ तो
तुम्हारी रीढ पर टिका है-

तुम्हारी रीढ को
सच और हकीकत का
भले ही ज्ञान नहीं,
परन्तु बोझ की परिभाषा
को वह भलीभांति जानती है-

असहनीय बोझ को
जब वह जमीन पर गिरा दे
तो तुम्हारा ये महल, 
ताश के पत्तों की तरह
बिखर जाएगा-

बिखरी महल की दीवारें
तुम्हें बौना कर देंगी,
और यथार्थ की झोंपड़ी में
जलते सच्चाई के दीपक की लौ,
तुम्हारी गर्दन और महल
की दीवारों से भी 
ऊंची होकर जलने लगेगी-



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