Monday, November 8, 2010

केंचुली

मैंने  देखा है,
गिरगिट की तरह
रंग बदलते.
नक़ाब ओढ कर
संग बद्लते,
सांप ही नहीं,
आदमी को भी,
केंचुली बदलते हुए,
फिर भी,
दोनों में,
एक अंतर है, 
इन्सान का, 
केंचुली बदलना, 
किसी मौसम का
 मोहताज़ नहीं,
जहां ताज़ नहीं
वहां आवाज़ नहीं,
न्याय के तराज़ू का
यहां रिवाज़ नहीं-
खुदगर्जी,आपाधापी
और चापलूसी
की लाठी से
जो भैंस ,
हांक कर ले जाएगा,
न्याय का पलड़ा भी,
उधर ही झुक जाएगा।

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