Friday, November 12, 2010

नसीबों की स्याही

मैनें तो , 
सारे जहां की रुसवाईयां,
अपने बदन पर,
जोंक की तरहा,
चिपका ली हैं,
दुखों, तकलीफों से,
दोस्ती बना ली है-
तेरे भरोसे,
सामाजिक मर्यादाओं का,
समंन्दर लांघने को,
कारवां के पुल भी बना लिए,
नीड़ सजा लिए-
लेकिन तूने,
क्षण भर संघर्ष की ज्वाला ,
को देख,
उपदेशक की सीढियों से,
फिसल कर,
अपने ब्यान बदल लिए,
और फिर,
मेरे नसीब के होंठ,
शुष्क काले स्याह हो गए,
नसीबों की स्याही सूख गई-
मै हर बरस ,
दीपावली पर ढूंढता हूं,
दीप जला कर,
अपने चांद को

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