Friday, March 4, 2011

सुख़-दुख़ का सफ़र


सुख-दुख का सफ़र
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मैं आज भी
जीवन के सफ़ेद पन्नों पर
लिखी गई उस शोध को
पढ कर
यह समझ नहीं पाया हूं
कि चाहत के अंकुर से
उभरने वाले पौधे पर
कान्टे क्यों उग आते हैं
परिणति को बिन जाने
आसक्त पांव
बरबस ही बेखौफ
कान्टों की उस पगडंडी पर
 क्यों चलने लगते हैं

इतिहास के कई
ज़ाल बुनकर भी
इस शोधनुमा मछली को
आजतक बांध न पाया
समझ न पाया

शोध के अंतिम छोर तक
एक ही इबारत लिखी हुई थी
जहां फूल है
वहां कांटे भी है,

जहां सुख है 
वहां दर्द है, दुख है, वेदना है
जिन्दगी का ये सफ़र 
एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है
इस लिए कि
एक के बिना 
दूसरे का अस्तित्व गौण 
हो जाता है।
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