Saturday, November 26, 2011

अब मैं हूं समझौतावादी


कई बार खुद को,
खुद से ही डर लगने लगता है-
कहीं मैं,
किसी अपने पर गुस्सा होकर,
नाराज़ न हो जाऊं-




फिर अगर उसने मुझे मनाया नहीं तो,

नाराज़ होकर वह मेरा अपना,
मुझ से दूर ना चला जाए,

शायद उसका साथ हमेशा के लिए छूट जाए-
तब मुझे,
अपने उस गुस्से और नाराज़गी की कीमत,
किसी "अपनेपन" को खोकर चुकानी पड़े-


इस लिए अब मैं समझौता करता हूं,
गुस्सा नहीं ,
ताकि अपनेपन से रिश्ता कायम रहे-
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1 comment:






  1. आदरणीय नरेश विद्यार्थी जी
    सादर नमस्कार !
    घणी खम्मा !!

    बहुत सुंदर कविता -
    अब मैं समझौता करता हूं…
    गुस्सा नहीं ,
    ताकि अपनेपन से रिश्ता कायम रहे…


    भाव पक्ष के चरम को छूती इस रचना के लिए
    बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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