Sunday, October 23, 2011

थकावट खोना चाहता हूं


भटके पथ पर,
पसीने से लथपथ,
मैले कमीज़ पायजामें ने,
जब शाम हुई तो,
शराब के ठेके पर,
दिन भर की मेहनत को,
पव्वे में डाल कर गटक लिया,
और झूमने लगा-


पैरों की टूटी चप्पल ने,
उलाहना दिया,
तेरे साथ मैंने भी दिया, दिनभर खटा,
कभी मेरा भी तो ख़्याल कर,
मेरे तलवे घिस गए,
चमड़ी उधड़ गई,
कभी तो मलहम लगा, पैबन्द लगा-


इस पर हाथों की बिवईयां,
भी बोल उठी और
क्रांति का बिगुल फूंक डाला-


लेकिन तब तक सिर घूमने लगा, 
कमीज़-पायजामा झूमने लगा,
चप्पल और बिवईयों की 
क्रांति का बिगुल  सुनकर कहा,
बहुत थक गया हूं ,
थकावट खोना चाहता हूं ,
सारे जहां का ग़म भुला कर,
सोना चाहता हूं ,
और 
फिर कमीज पायजामा
धरती की गोद में सिर रखकर,
चैन की नींद सो गया-
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1 comment:






  1. आदरणीय नरेश जी
    घणी खम्मा !

    भटके पथ पर,
    पसीने से लथपथ,
    मैले कमीज़ पायजामें ने,
    जब शाम हुई तो,
    शराब के ठेके पर,
    दिन भर की मेहनत को,
    पव्वे में डाल कर गटक लिया,
    और झूमने लगा
    पैरों की टूटी चप्पल ने,
    उलाहना दिया...


    वाह वाह ! पियक्कड़ी पर भी कविता …
    नये बिंब !

    अच्छा लगा आपके यहां आ'कर …

    मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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