Saturday, June 25, 2011

ख़ामोश-तनहाईयां



हर रोज़ की तरहा,
खामोश- तनहाईयों का जंगल, 
मेरे साथ, मेरे कमरे में आकर बैठ जाता है-
दिल की खिड़की से,
मिट्टी के टूटे घरोंदे सी, 
एक जोड़ी मासूम सी आंखें,
किसी की आहट को ढूंढने लगती हैं,


आंगन में यादों का बूढा पेड़ अब,
अपने आप को वट वृक्ष कहने लगा है,
आत्मीयता और अपनेपन के पौधे,
उदासी की चादर ओढे,
किसी गहन चिंता में डूबे हैं,
मानों किसी ने उनकी जड़ों में
जहर घोल दिया हो,
और बसन्त ने उनसे मुंह मोड़ लिया हो-


मासूमियत की चाय,
उबल-उबल कर ,
तुम्हारे बालों की तरहा स्याह हो चुकी है,

उसमें प्यार का दूध डाल कर,
रंग बदलने का प्रयास करता हूं ,
वफ़ा की छलनी में छान कर,
वादों की केतली में डाल कर,,,
उसे आत्मीयता के सूखे फूलों ,
के साथ सजा देता हूं,


आंखों की गहराई के प्याले में भर कर,
डाली से टूट कर निर्जीव हो चुके,
सूखे पत्तों के होठों पर लगा देता हूं,
यह सोच कर कि,
तुम्हारी याद और तुम्हारी कल्पना,  
के मिश्रण से बना अमृत,
शायद ख़ामोशियों के चेहरे को,
नया जीवन दे दे--
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1 comment:

  1. तुम्हारी याद और तुम्हारी कल्पना,
    के मिश्रण से बना अमृत,
    शायद ख़ामोशियों के चेहरे को,
    नया जीवन दे दे--bahut sundar hai.....shalinigaur

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