Thursday, April 14, 2011

गुल्लक


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 मेरे शहर के लोग
तरक्की का दावा कर रहे हैं,
आंकड़ों के मकड़ जाल में फंसा रहे हैं,
पहाड़े पढा रहे हैं,
और
कम्प्यूटर की आंख से 
देश की ईज्जत को,
ऊंचा उठा रहे हैं.
लेकिन मेरे घर के सामने ही,
सब्जी मंडी के बाहर,
अपने गले में झोले ‍थैले लटकाए,
अबोध बच्चे,
सब्जी का टोकरा ढोने वाले,
मज़दूरों के पीछे दोड़ते हैं,
टोकरे से गिरे,
सब्जी के टुकड़ों को,
अपने थैलों में सहेजते हैं.
होटल के पिछवाड़े
आठ बरस का रामू
जूठे बर्तन मांजता हुआ
अब भी ऊंघने लगता है
होटल का मलिक
अब भी उसे
डंडे की धमक से जगाता है.
शहर के बाहर
अब भी कचरे के ढेर में
अबोध सिर धंसे हुए हैं
कचरे मैं कुछ ढूंढ रहे हैं.
फिर भी 
तरक्की का दावा करते हैं तो
मान लेता हूं
लेकिन
सब्जी के टोकरे के पीछे
दौड़ने वाले बालक
होटल के पिछवाड़े 
बर्तन धोने वाला रामू
और
कचरे में धंसे अबोध सिर
पहले 
पेट भरने को मेहनत करते थे
अब वे भौतिकता की गुल्लक भरते हैं.
इस गुल्लक को 
भरने की खातिर
अब वे पहले से अधिक तेज
दौड़ते हैं.
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